अवैज्ञानिक निर्माण और अनियंत्रित पर्यटन ने पहाड़ों की सहनशीलता तोड़ी,जलवायु चेतावनी की अनदेखी पड़ रही भारी
उत्तराखण्ड सत्य,देहरादून
उत्तरकाशी के थराली क्षेत्र में बादल फटने से आई भीषण तबाही ने एक बार फिर उत्तराखंड के पर्यावरणीय संकट की गंभीरता को सामने ला दिया है। सात लोगों की मौत हो चुकी है, कई अब भी लापता हैं और पूरा का पूरा गांव मिट्टðी व मलबे में समा गया है। पहाड़ की इस चीख में केवल पीड़ा ही नहीं, आक्रोश भी है-वर्षों से सहते-सहते अब पहाड़ जवाब देने लगे हैं। यह सिर्फ एक प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि हमारी बनाई हुई त्रसदी है। हमने उन्हें काटा, चीर डाला, खोखला किया और अब वे बिखरने लगे हैं। जिसे ‘देवभूमि’ कहा जाता था, वह अब आपदाओं की भूमि बन चुकी है। बारिश, भूस्खलन, बादल फटना, नदियों का रुख बदल जाना अब अपवाद नहीं, बल्कि हर मानसून की नियमित कहानी है। हर बरसात किसी गांव को बहा ले जाती है, किसी का घर उजाड़ देती है और मौत की गिनती बढ़ा देती है। लेकिन इसके बावजूद सरकारें चुप हैं, योजनाएं गूंगी हैं और जनता बेबस। विकास के नाम पर हो रहा निर्माण असल में विनाश का दूसरा नाम बन चुका है। पहाड़ों में सड़कें बनाने के लिए डायनामाइट से धमाके किए जाते हैं, टनल और चौड़ी सड़कों के लिए पूरी पर्वत श्रृंखलाएं काटी जाती हैं, नदियों की धारा मोड़ी जाती है। जो सड़कें सुरक्षा और सुविधा का वादा करती थीं, वे अब मौत की राह बन गई हैं- जो टनल सुगमता के लिए बनी थीं, वे आपदा का द्वार साबित हो रही हैं। पर्यटन, जो कभी स्थानीय अर्थव्यवस्था का सहारा था, अब पहाड़ों पर बोझ बन गया है। अनियंत्रित भीड़, वाहनों का धुआं, प्लास्टिक का अंबार, और ट्रैफिक की अंतहीन कतारें वादियों का संतुलन बिगाड़ रही हैं। कभी जहां गर्मियों में पंखा चलाने की जरूरत नहीं पड़ती थी, वहां अब अक्टूबर में भी एसी चल रहे हैं। यह सिर्फ जलवायु परिवर्तन का असर नहीं, बल्कि चेतावनी है कि हमने प्रकृति की सीमाएं पार कर दी हैं। बाहरी लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर जमीन खरीदी जा रही है। स्थानीय निवासियों की जमीनें औने-पौने दामों में बिक रही हैं, गांवों में कॉलोनियां उग रही हैं, और संस्कृति, भाषा व पहचान धीरे-धीरे मिट रही है। तपोभूमि रही भूमि अब रियल एस्टेट माफिया के कब्जे में है और सरकारें मूक दर्शक बनी बैठी हैं। पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्टें महज औपचारिकता रह गई हैं, और परियोजनाओं को मंजूरी देने वाले जानते हैं कि उनका हर हस्ताक्षर एक पेड़ गिरा रहा है, एक चट्टðान कमजोर कर रहा है और एक गांव को खतरे के करीब ला रहा है। थराली का दबा हुआ गांव और अपनों को खोजते परिजनों की तस्वीरें हमें यह याद दिलाती हैं कि यह आिखरी चेतावनी है। अगर अब भी नहीं चेते, तो अगली बार यह हादसा किसी और गांव में नहीं, हमारे अपने दरवाजे पर दस्तक देगा। उत्तराखंड केवल एक राज्य नहीं, बल्कि एक चेतना है। उसे बचाना सिर्फ स्थानीय लोगों की नहीं, बल्कि पूरे देश की जिम्मेदारी है। समय अब केवल घोषणाओं का नहीं, कठोर और साहसी फैसलों का है-निर्माण पर नियंत्रण, पर्यटन की सीमा, भूमि की सुरक्षा, और शिक्षा में पर्यावरण जागरूकता का समावेश। अगर अभी नहीं रुके, तो हम इतिहास में उन लोगों के रूप में दर्ज होंगे, जिन्होंने देवभूमि को विनाशभूमि बना दिया।